आयुर्वेद में बताया गया है कि जीवन में सदाचार को प्राप्त करने का साधन योग मार्ग को छोड़कर दूसरा कोई नहीं है। नियमित अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही योग के संपूर्ण लाभ को प्राप्त किया जा सकता है। हमारे ऋषि मुनियों ने शरीर को ही ब्रम्हाण्ड का सूक्ष्म मॉडल माना है। इसकी व्यापकता को जानने के लिए शरीर के अंदर मौजूद शक्ति केन्द्रों को जानना ज़रूरी है। इन्हीं शक्ति केन्द्रों को ही ‘’चक्र कहा गया है।
आयुर्वेद के अनुसार शरीर में आठ चक्र होते हैं। ये हमारे शरीर से संबंधित तो हैं लेकिन आप इन्हें अपनी इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं कर सकते हैं। इन सारे चक्रों से निकलने वाली उर्जा ही शरीर को जीवन शक्ति देती है। आयुर्वेद में योग, प्राणायाम और साधना की मदद से इन चक्रों को जागृत या सक्रिय करने के तरीकों के ब्बारे में बताया गया है। आइये इनमें से प्रत्येक चक्र और शरीर में उसके स्थान के बारे में विस्तार से जानते हैं।
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आठ चक्रों का वर्णन :
1- मूलाधर चक्र :
यह चक्र मलद्वार और जननेन्द्रिय के बीच रीढ़ की हड्डी के मूल में सबसे निचले हिस्से से सम्बन्धित है। यह मनुष्य के विचारों से सम्बन्धित है। नकारात्मक विचारों से ध्यान हटाकर सकारात्मक विचार लाने का काम यहीं से शुरु होता है।
2- स्वाधिष्ठान चक्र :
यह चक्र जननेद्रिय के ठीक पीछे रीढ़ में स्थित है। इसका संबंध मनुष्य के अचेतन मन से होता है।
3- मणिपूर चक्र :
इसका स्थान रीढ़ की हड्डी में नाभि के ठीक पीछे होता है। हमारे शरीर की पूरी पाचन क्रिया (जठराग्नि) इसी चक्र द्वारा नियंत्रित होती है। शरीर की अधिकांश आतंरिक गतिविधियां भी इसी चक्र द्वारा नियंत्रित होती है।
4- अनाहत चक्र :
यह चक्र रीढ़ की हड्डी में हृदय के दांयी ओर, सीने के बीच वाले हिस्से के ठीक पीछे मौजूद होता है। हमारे हृदय और फेफड़ों में रक्त का प्रवाह और उनकी सुरक्षा इसी चक्र द्वारा की जाती है। शरीर का पूरा नर्वस सिस्टम भी इसी अनाहत चक्र द्वारा ही नियत्रित होता है।
5- विशुद्धि चक्र :
गले के गड्ढ़े के ठीक पीछे थायरॉयड व पैराथायरॉयड के पीछे रीढ की हड्डी में स्थित है। विशुद्धि चक्र शारीरिक वृद्धि, भूख-प्यास व ताप आदि को नियंत्रित करता है।
6- आज्ञा चक्र :
इसका सम्बन्ध दोनों भौहों के बीच वाले हिस्से के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर स्थित पीनियल ग्रन्थि से है। यह चक्र हमारी इच्छाशक्ति व प्रवृत्ति को नियंत्रित करता है। हम जो कुछ भी जानते या सीखते हैं उस संपूर्ण ज्ञान का केंद्र यह आज्ञा चक्र ही है।
7- मनश्चक्र- मनश्चक्र (बिन्दु या ललना चक्र) :
यह चक्र हाइपोथेलेमस में स्थित है। इसका कार्य हृदय से सम्बन्ध स्थापित करके मन व भावनाओं के अनुरूप विचारों, संस्कारों व मस्तिष्क में होने वाले स्रावों का आदि का निर्माण करना है, इसे हम मन या भावनाओं का स्थान भी कह सकते हैं।
8 – सहस्रार चक्र :
यह चक्र सभी तरह की आध्यात्मिक शक्तियों का केंद्र है। इसका सम्बन्ध मस्तिष्क व ज्ञान से है। यह चक्र पीयूष ग्रन्थि (पिट्युटरी ग्लैण्ड) से सम्बन्धित है।
इन आठ चक्र (शक्तिकेन्द्रों) में स्थित शक्ति ही सम्पूर्ण शरीर को ऊर्जान्वित (एनर्जाइज), संतुलित (Balance) व क्रियाशील (Activate) करती है। इन्हीं से शारीरिक, मानसिक विकारों व रोगों को दूर कर अन्तःचेतना को जागृत करने के उपायों को ही योग कहा गया है।
अष्टचक्र व उनसे संबंधित स्थान एवं कार्य | |||||||
क्र. सं. | संस्कृत नाम | अंग्रेजी नाम | शरीर में स्थान | संबंधित अवयव व क्रियाएं | चक्र की शक्ति निष्क्रिय रहने से उत्पन्न होने वाले रोग | अन्तःस्रावी ग्रन्थियों पर क्रियाएं | क्रिया शरीरगत तंत्र |
1- | मूलाधार चक्र | Root cakra or pelvic plexus or coccyx center | रीढ़ की हड्डी | उत्सर्जन तत्र, प्रजनन तत्र, गुद, मूत्राशय | मूत्र विकार, वृक्क रोग, अश्मरी व रतिज रोग | अधिवृक्क ग्रन्थि | उत्सर्जन तंत्र मूत्र व प्रजनन तत्र |
2- | स्वाधिष्ठान चक्र | Sacral or sexual center | नाभि के नीचे | प्रजनन तत्र | बन्ध्यत्व, ऊतक विकार, जननांग रोग | अधिवृक्क ग्रन्थि | प्रजनन तंत्र |
3- | मणिपूर चक्र | Solar plexus or lumbar center or epigastric Sciar plexus | छाती के नीचे | आमाशय, आत्र, पाचन तंत्र, संग्रह व स्रावण | पाचन रोग, मधुमेह, रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी | लैगरहेन्स की द्वीपिकायें (अग्न्याशयिक ग्रन्थि) | पाचन तंत्र |
4- | अनाहत चक्र | Heart chakra or cardiac plexus or dorsal center | छाती या सीने का का बीच वाला हिस्सा (वक्षीय कशेरुका) | हृदय, फेफड़े , मध्यस्तनिका, रक्त परिसंचरण, प्रतिरक्षण तत्र, नाड़ी तत्र | हृदय रोग, रक्तभाराधिक्य (रक्तचाप) | थायमस ग्रन्थि (बाल्य ग्रन्थि) | रक्त परिसंचरण तत्र, श्वसन तंत्र , स्वतः प्रतिरक्षण तंत्र |
5- | विशुद्धि चक्र | Carotid plexus or throat or cervical center | थायराइड और पैराथायरइड ग्रन्थि | ग्रीवा, कण्ठ, स्वररज्जु, स्वरयत्र, | श्वास, फेफड़ों से जुड़े रोग, अवटु ग्रन्थि, घेंघा | अवटु ग्रन्थि | श्वसन तंत्र |
6- | आज्ञा चक्र | Third eye or medullary plexus | अग्रमस्तिष्क का केन्द्र | मस्तिष्क तथा उसके समस्त कार्य, एकाग्रता, इच्छा शक्ति | अपस्मार, | पीनियल ग्रन्थि | तत्रिका तंत्र |
7- | मनश्चक्र या | Lower mind plexus or hypothalamus | (चेतक) | मस्तिष्क, हृदय, समस्त अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का नियत्रण, निद्रा आवेग, मेधा, स्वसंचालित तत्रिका तत्र समस्थिति | मनःकायिक तथा तत्रिका तत्र | पीयूष ग्रन्थि | संवेदी तथा प्रेरक तंत्र |
8- | सहस्रार चक्र | Crown chakra or cerebral gland | कपाल के नीचे | आत्मा, समस्त सूचनाओं का निर्माण, अन्य स्थानों का एकत्रीकरण | हार्मोन्स का असंतुलन, चयापचयी विकार आदि | पीयूष ग्रन्थि | केन्द्रीय तत्रिका तंत्र (अधश्चेतक के |
योग और अष्टचक्र का संबंध :
अष्ट चक्रों को जानने व उनके अन्दर स्थित शक्तियों को जागृत व उर्ध्वारोहण के लिए क्या योग है? इसको समझना बहुत आवश्यक है। हर एक योग किसी ना किसी चक्र को जागृत करता है. आइये हम योग और अष्टचक्रों के आपसी संबंध के बारे में विस्तार से जानते हैं.
योग क्या है :
योग शब्द संस्कृत के ’युजिर्‘ योगे’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है समाधि, चित्त वृतियों का निरुद्ध हो जाना और आत्मा का अपने शांत स्वरुप में मग्न होना। आध्यात्मिक अर्थ में कहें तो ऐसी विधि जिसकी मदद से मनुष्य का परमात्मा से मिलन होता है। उस विधि को ही ‘योग’ कहते हैं । महर्षि पतंजलि ने योग को ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध’ (योगः चित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है।
महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग :
महर्षि पतंजलि के अनुसार आत्मा के परमात्मा से मिलने की जो प्रक्रिया है वो बहुत कठिन है। उन्होंने उस पूरी प्रक्रिया को आठ भागों में बांट दिया है। ये आठ भाग की योग के आठ अंग कहलाते हैं और आम भाषा में इसे ‘पतंजलि अष्टांग योग’ कहा जाता है। मन की चंचलता को दूर करने के शास्त्रों में जिन उपायों को बताया गया है। वे सभी उपाय योग के ही अंग हैं। योग से व्यक्ति का मन शांत और प्रसन्न होता है और उसमें नई उर्जा का संचार होता है।
इन आठ अंगों को यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के रूप में जाना जाता है। जैसे किसी इमारत की छत पर जाने के लिए आपको सीढ़ी का प्रयोग करना पड़ता है उसी तरह आत्मा को परमात्मा से मिलाने के लिए इन आठ अंगों का सहारा लेना पड़ता है। ये सारे अंग एक क्रम में हैं और समाधि योग की आखिरी अवस्था है।
इनमे से शुरूआती दो अंग : यम और नियम दोनों ही हमारे व्यवहार से जुड़े नियम हैं। इसका मतलब है कि इन दोनों में पारंगत होने के बाद ही आप आगे के अंगों में पारंगत या सिद्द हो सकते हैं। आइये इनमें से प्रत्येक अंग के बारे में विस्तार से जानते हैं।
1- यम :
यम योग की पहली अवस्था है। इसके अंतर्गत भी पांच नियम बताए गये हैं : अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। आपको अपने जीवन में इन पांच नियमों का पालन करना चाहिए।
अहिंसा :
किसी को कष्ट, दुःख या चोट पहुँचाना हिंसा है और ऐसा ना करना अहिंसा। आप जितने भी गलत काम करते हैं उसके मूल में हिंसा ही छिपा हुआ होता है। इसीलिए यम के पहले ही नियम में बताया गया है आप अपने व्यवहार में अहिंसा का पालन करें। किसी के साथ मार पीट या ऐसा कुछ भी ना करें जिससे दूसरों को कष्ट हो।
सत्य :
इसमें बताया गया है कि आपको हमेशा सच बोलना चाहिए। सच बोलने से आपका व्यक्तित्व और बेहतर होता है।
अस्तेय :
अस्तेय का मतलब है चोरी ना करना। अक्सर ऐसा होता है कि किसी दूसरे की कोई चीज देखकर उसे हासिल करने का मन करने लगता है। अपने मन को ऐसा बनाएं जिससे किसी दूसरी वस्तु को पाने का लालच ख़त्म हो जाए। यही अस्तेय का सार है। इस नियम को अपने व्यवहार में शामिल करें।
ब्रम्हचर्य :
सातों शातुओं में शुक्र धातु को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है और इसकी रक्षा करना ही ब्रम्हचर्य कहलाता है। इसके लिए अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना ज़रुरी होता है।
अपरिग्रह:
अनावश्यक वस्तुओं और विचारों का त्याग की अपरिग्रह कहलाता है। अर्थात हमें सिर्फ अपनी ज़रुरत के हिसाब से ही चीजों का इस्तेमाल करना चाहिए। अधिक से अधिक चीजें हासिल करने के मोह से बचना चाहिए। यही बात विचारों पर भी लागू होती है। गलत विचारों से हमेशा दूर रहें।
2- नियम :
इसे भी पांच भागों में बांटा गया है : शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्राणिधान। इनका सम्बन्ध सीधे तौर पर आपके आचरण से है। इन नियमों का पालन ना करने से पहले आपकी व्यक्तिगत हानि होती है फिर समाज और देश की भी हनी होती है। इन नियमों का पालन करने से स्वाधिष्ठान चक्र जागृत हो जाता है।
3- आसन :
आज के समय में लोग आसन को ही योग समझने लगे हैं जबकि ऐसा नहीं है। महर्षि पतंजलि ने योग के तीसरे चरण में आसन को रखा है। शरीर को रोगों से दूर रखने और सेहतमंद जिंदगी जीने के लिए आसन करना ज़रुरी है। आपको अपनी सुविधा और ज़रुरत के अनुसार आसनों का चुनाव करना चाहिए और रोजाना करना चाहिए। इसका सम्बन्ध मणिपूर या ’नाभि चक्र‘ से है। आसन करने से मणिपूर चक्र की शक्ति जागृत होती है। इससे पाचन क्रिया दुरुस्त होती है और कई तरह के शारीरिक रोग ठीक होते हैं।
4- प्राणायाम :
प्राणायाम के अंतर्गत साँसों से जुड़ी क्रियाएं की जाती है। प्राणायाम का संबंध अनाहत चक्र से है, जो फेफड़ों और ह्रदय में स्थित है। प्राणायाम करने से फेफड़े और ह्रदय दोनों की काम करने की क्षमता बढ़ती है। अनुलोम-विलोम जैसी क्रियाएं प्राणायाम के अंतर्गत ही आती है। इसे करने से शारीरिक और बौद्धिक दोनों तरह का विकास होता है। हर किसी को नियमित रुप से सुबह प्राणायाम करना चाहिए।
5- प्रत्याहार :
प्रत्याहार का मतलब है अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना। कई बार ऐसा होता है कि जब आप एक इन्द्रिय पर नियंत्रण रखते हैं तो दूसरी इन्द्रिय और तेजी से नियंत्रण से बाहर होने लगती है। एक साथ सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण कैसे रखें इस बात को प्रत्याहार में समझाया गया है। प्रत्याहार का संबंध विशुद्धि चक्र से है। इस चक्र के जागृत होने पर इन्द्रियों के प्रति आसक्ति हटती है।
6- धारणा :
धारणा को योग के छठवे चरण पर रखा गया है। धारणा का सम्बन्ध ’आज्ञा चक्र‘ से है। प्रत्याहार द्वारा जब इन्द्रियाँ एवं मन अन्तर्मुखी होने लगे, उसको एक स्थान पर स्थिर करने का नाम ही धारणा है। आम शब्दों में कहें तो मन को एक जगह केंद्रित करना ही धारणा कहलाता है।
7- ध्यान:
यह योग का सातवाँ चरण है। आयुर्वेद में ध्यान के कई फायदों के बारे में बताया गया है। नियमित रुप से सुबह भोर में उठकर ध्यान करना सबसे अच्छा माना जाता है। इसे करने से एकाग्रता बढ़ती है और मन शांत होता है। आज की व्यस्त जीवनशैली में भी रोजाना ध्यान करने के लिए समय ज़रूर निकालें। ध्यान का सम्बन्ध मनश्चक्र ललना व बिन्दु चक्रों से है। धारणा द्वारा संचित चेतना के सम्पूर्ण प्रवाह व शक्ति को अपने अन्दर स्थित कर उसको स्थिर करना ही मनश्चक्र की जागृति है।
8- समाधि :
यह योग का आखिरी चरण है। समाधि का मतलब है आत्मा का परमात्मा से मिलन। ऊपर बताए गए सातों चरण पार करने के बाद ही कोई समाधि तक पहुंच सकता है। सभी विकारों, विचारों से मुक्त केवल ध्येय मात्र (ईश्वर) के स्वरूप व स्वभाव को प्रकाशित करने वाला शून्य की स्थिति ही ’सहस्रार चक्र‘ जागृति या समाधि की अवस्था व परमानन्द की स्थिति है।
source:- Arth